Monday, June 24, 2019

धर्म और भीड़तंत्र (जप लेंगे आपको भी किसी दिन)


Dear America: Your are waking up, as Germany once did to the awareness that 1/3 of your people would kill another 1/3, while 1/3 watches.
-Werner Herzog

वर्नर हर्ज़ोग, एक जर्मन फिल्म निर्देशक और स्क्रीनराइटर ने उपरलिखित वक्तव्य कहा था। अगर इसका मैं हिन्दी में अनुवाद करूँ और अमरीका की जगह भारत लिख दूँ तो ये ऐसा लगेगा:

प्रिय भारत: तुम जाग रहे हो जैसे एक बार जर्मनी जागा था कि उसके 1/3 लोगों को 1/3 लोग मार डालेंगे और बाकी 1/3 देखेंगे।

इस वक्तव्य पर गौर करिए तो इस समय भारत यानी हमारे प्रिय देश की स्थिति यही है। इस समय देश कई संकटों से एक साथ गुज़र रहा है। अस्थिरता, असंतुलन, असामाजिकता, अराजकता अपने चरम पर है। देश की आर्थिक स्थिति डगमगा रही है। पर जो सबसे ज़्यादा भयभीत कर देने वाला तथ्य है, वो है कि देश की एक बड़ी जनसंख्या इस तथ्य के प्रति अंधी और बहरी हो कर बैठी है।

क्या आप होलोकॉस्ट के बारे में जानते हैं। होलोकॉस्ट इतिहास की वो घटना है जो हिटलर के शासन के दौरान यहूदी संप्रदाय के लोगों को जड़ से खत्म कर देने का सोचा-समझा और योजनाबद्ध प्रयास था। 1933 में अडोल्फ़ हिटलर जर्मनी की सत्ता में आया और उसने एक नस्लवादी साम्राज्य की स्थापना की। इसमें यहूदियों को सब-ह्यूमन करार दिया और उन्हें इंसानी नस्ल का हिस्सा नहीं माना गया। 1939 में जर्मनी द्वारा विश्व युद्ध भड़काने के बाद हिटलर ने यहूदियों को जड़ से मिटाने के लिए अपना अंतिम हल अमल में लाना आरंभ किया। उन्हें खास जगहों में ठूस कर रखा जाता था, भूखा रख कर श्रम कराया जाता था और फिर जहरीली गैस छोड़ कर मार दिया जाता था। युद्ध के 6 वर्षों के दौरान नाजियों ने तकरीबन 60 लाख यहूदियों की हत्या कर दी, जिनमें से 15 लाख बच्चे थे। (होलोकॉस्ट पर विस्तार से जानने के लिए आप जर्मनी और इटलर का इतिहास पढ़ सकते हैं)

अब आप सोचेंगे कि क्या मैं भारत की तुलना और भारत के सत्ताधारियों की तुलना जर्मनी और हिटलर से कर रही हूँ। नहीं, बिलकुल नहीं। तुलना तो दूर की बात है मैं ऐसी वीभत्स और भयंकर कल्पना से भी भयभीत हूँ। पर हाँ मुझे लगता है हम उसी रास्ते पर हैं। हम में भी एक धर्म, जाति, नस्ल और शुद्धता का जहर हर रोज़ ठूँसा जा रहा है। प्रतिदिन हमारे अंदर झूठ ठूँसा जाता है। जिसे हम चाहते और ना चाहते हुए गृहण कर रहे हैं। उसका नतीजा ये होगा कि वो सारे झूठ एक दिन हमारे अंदर सच बन कर पनपेंगे और हम भी किसी नरसंघार का या तो कारक होंगे या पीड़ित होंगे। जैसे आज भारत में भीड़तंत्र एक समुदाय विशेष पर अपना कहर ढा रहा है और भारतीय प्रशासन आँख मूँद कर बैठा है वैसे ही अगर चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब हम एक दूसरे को मार-काट रहे होंगे बिना ये देखे और जाने कि किसका धर्म क्या है? किसका समुदाय क्या है? किसकी जाति क्या है?

मैं अपने जन्म से हिन्दू हूँ पर कर्म से मेरा कोई धर्म नहीं। मैं पूजा, अर्चना करती हूँ। ईश्वर में विश्वास रखती हूँ। पर मेरे लिए उस ईश्वर को किसी रंग-रूप में आकार दे कर पूजा करने की बाध्यता नहीं है। मंदिर, मस्जिद, चर्च हो या गुरुद्वारा मैं हर जगह अपना माथा टेक लेती हूँ। मुझे भी श्री राम पर आस्था है और राम का नाम लेना या ना लेना मेरे मुक्त हृदय की इक्षा पर निर्भर है। हिन्दू हो के भी मैं ज़बरदस्ती किसी के कहने पर राम का नाम नहीं लूँगी। मुझे ये दिखावा करने की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती। सोच के देखिये अगर किसी अन्य धर्म के व्यक्ति भीड़ बन कर आप पर टूट पड़ें और आपसे ज़बरदस्ती उनके ईश्वर का महिमामंडन करने के लिए आपको बाध्य करें तो आप क्या करेंगे? ज़ाहिर है आप ना ही करेंगे। पर फिर आपके साथ क्या होना चाहिए? आपको पीट-पीट कर मार दिया जाना चाहिए। है ना?

हिन्दुत्व के नाम पर हमारे देश में जिस तरह एक बार फिर बंटवारा किया जा रहा है, राम के नाम पर हत्यायें हो रही हैं, ये आखिर है क्या? ये भी एक साजिश है। समुदाय विशेष को खत्म कर देने की साजिश। लोगों में हिन्दुत्व का जहर भर दो और एक चिन्हित सभ्यता का अंत कर दो। देश को बांटे रखो और राज करो। बिलकुल वैसे जैसे अंग्रेजों ने किया। ऐसे ही नहीं अंग्रेज़ हम पर 200 साल राज करते रहे।

गौर करिए तो प्रत्येक क्षेत्र से बुद्धिजीवी दूर हो रहे हैं। इतिहास की महान हस्तियों के बारे में लगभग रोज़ झूठ परोसा जा रहा है। यहाँ तक कि वर्तमान सामाजिक और आर्थिक स्थिति के भी झूठे आंकड़े प्रस्तुत किए जा रहे हैं। मज़े की बात ये है कि 2019 में हो कर भी, जेट युग में हो कर भी, हांथ में इंटरनेट और गूगल हो कर भी हमने शोध करना बंद कर दिया है और हमेशा की तरह बस हम अंधाधुंद अंधविश्वास में गलत लोगों का समर्थन कर रहे हैं। ये वही लोग हैं जिन्हें देश के बच्चों के मर जाने का कोई दुख नहीं। जिन्हें किसी की जान का कोई दुख नहीं। ये वो लोग हैं जो उनसे सवाल करने वालों को, उनकी आलोचना करने वालों को, उनकी पोल खोलने वालों को जेल पहुंचा देते हैं। उनकी बोलती बंद कर देते हैं। उनका जीवन बर्बाद कर देते हैं। उनकी जान तक ले लेते हैं।

करते रहिए, आप उन्हीं का समर्थन करते रहिए। उन्हें भगवान मान कर पूजिए। आप तब तक ऐसा करेंगे जब तक आप पर खुद नहीं बीतेगी। जब तक आप इस भीड़तंत्र के शिकंजे में नहीं आएंगे। ये सोच कर संतुष्ट मत बैठिएगा कि जो बीज आपने खुद बोये हैं उसकी फसल आपको नहीं काटनी पड़ेगी।



Sunday, December 16, 2018

धर्म है या ड्रेकुला-2


कुछ वर्ष पहले एक बेहतरीन फिल्म आई थी पी.के.। ये एक ऐसी फिल्म थी जिसने बॉक्स ऑफिस पर ज़ोर दार मुनाफ़ा कमाया और बेहद धूम भी मचाई, बावजूद इसके कि देश के एक बहुत बड़े तबके को ये फिल्म पसंद नहीं आई क्यूंकी इसे देखने के बाद उनकी धार्मिक भावनाएं आहत हुई थीं। मुझे तो समझ नहीं आता कि कैसे एक चलचित्र के माध्यम से भारतवर्ष में लोगों की धार्मिक या ऐतिहासिक भावनाएं आहत हो जाती हैं।

इस फिल्म का मुख्य उद्देश्य या प्लॉट था धर्म और धार्मिक क्रियाकलापों के प्रति हमारा अंधविश्वास दर्शाना। आमिर खान और राजू हिरानी के सफल प्रयासों से बनी ये शानदार फिल्म हमारी कट्टरपंथी और रूढ़िवादी विचारधारा पर करारा प्रहार है। कैसे एक एलियन किसी दूसरे गृह से आ कर हमें वो सिखा जाता है जो हम यहाँ पूरी उम्र भर में भी नहीं सीख पाते।

हालांकि भारत एक धार्मिक देश है और सर्व धर्म संभाव की भावना और शिक्षा के साथ हम यहाँ बड़े होते हैं। स्कूल में शायद छठी कक्षा की सोशल साइंस की किताब में सर्वप्रथम “Unity in Diversity” का पाठ हमें पढ़ाया जाता है। यहाँ से धर्म के प्रति हमारा ज्ञान आरंभ होता है। इससे पहले हम जो जानते हैं वो सिर्फ हमारे घर में होने वाली ईश्वर की पूजा, इशू की प्रार्थना, खुदा की नमाज़ या गुरु साहिब की अरदास होती है। स्कूल में बड़े मज़े से हम सीखते हैं कि सारे धर्म एक समान हैं और अनेकता में एकता ही हमारे देश की उन्नति का गुरुमंत्र है। पर समस्या ये है कि हमें बड़ा भी होना है और बड़े होते-होते हम एकता भूल अनेकता की तरफ ध्यान केन्द्रित कर लेते हैं। अब हमारे लिए धर्म मेरा और तेरा हो जाता है।

मंदिर के नाम पर मस्जिद के नाम पर, राम के नाम पर, मोहम्मद के नाम पर हम बस लड़े जा रहे हैं। मंदिर बना लो, मस्जिद बना लो चाहे जितने गुरुद्वारे या गिरजाघर बना लो। दिलों से जब प्रेम ओझल हो गया हो, भाईचारा कहीं खो गया हो तो उस ऊपरवाले का झूठ-मूठ का घर बनाने का क्या फायदा? भारत में रहने वाले सिर्फ भारतीय ही क्यूँ नहीं हो सकते। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, जैन क्यूँ?

ऐसा नहीं कि मैं धर्म को नहीं मानती या भगवान में विश्वास नहीं रखती। बिलकुल रखती हूँ। बहुत ज़रूरी है सबके लिए किसी एक सुपर नैचुरल पावर में यकीन रखना। उम्र मेरी भले ही अभी इतनी नहीं हुई पर मैं चारों धाम की यात्रा कर चुकी हूँ, बहुत सारे पुरातन मंदिरों और पीठों के दर्शन कर चुकी हूँ। ऐतिहासिक इमारतें मुझे आकर्षित करती हैं। कहीं अपने मन से पहुंची हूँ तो कहीं बस संयोग से। पर किसी भी देव स्थान के दर्शन के समय मेरे मन में कोई स्वार्थ समाहित नहीं होता। ना तो मैं कुछ मांगने गयी थी ना कुछ पा लेने की मुझमे कोई चाह थी। दूर पहाड़ों में बसे किसी दिव्य देवस्थान में बस मुझे असीम शांति मिलती है। जहां पंडो का शोर न हो। दान पात्र भरने की कोई ज़बरदस्ती ना हो। ईश्वर को महसूस करने के लिए तो हमारा शांत चित्त ही काफी है पर असल में चित्त शांत करने के लिए ऐसे सुरम्य और दुरूह स्थानो तक पहुँचना पड़ता है।
बिना धर्म को जाने और समझे, बिना धार्मिक ग्रन्थों को पढ़े ही हम सुनी सुनाई बातों पर यकीन करते हुए अपनी विचारधारा बना लेते हैं। कोई भी धर्म या धर्मग्रंथ जीवो के प्रति हिंसा का समर्थन नहीं करता। पर फिर भी ये हम हैं जो कुछ कुरीतियों को धर्म के नाम की आढ़ में निभाते हैं और इस प्रकार गलत धारणाओं का उदय और स्थापन होता है।

हिन्दुत्व बचाने के लिए मार काट, इस्लाम बचाने के लिए जेहाद। क्या है ये सब? क्यूँ है ये सब? क्या वाकई हम इतने सामर्थ्यवान हैं जो अपने धर्म और ईश्वर की रक्षा करने में सक्षम है। क्या आपको पी.के. का क्लाइमैक्स याद है। जब तपस्वी और पी.के. के मध्य अंतिम वाक द्वंद चल रहा होता है-

पीके- “तुम सही बोलता हैं तपस्वी जी, एक टेम था जब हमरे पास भी खाये के लिए रोटी नहीं थी, रहे खातिर घर नहीं था, बहुत ही रोता था काहे कि कौनौ दोस्त भी नहीं था। उ वखत हमरा एक ही सहारा था- भगवान। रोज लगता था कल बेहतर होगा, भगवान कोई रास्ता दिखाएगा। हम मानता हूँ भगवान में विस्वास रखे से उम्मीद मिलता है, तकलीफ से जूझे खातिर हिम्मत मिलता है, ताकत मिलता है पर हमरा एक ठो सवाल है, कौन से भगवान पे विस्वास करें? आप लोग बोलता है एक भगवान है हम बोलता है नाईं दुई भगवान है। एक जौन हम सबको बनाया और एक जे को तुम लोग बनाए। वो जो हम सबको बनाया उ के बारे में हम कुच्छो नहीं जानते पर जे को तुम लोग बनाए वो बिलकुल तुम्हारी तरह है, छोटा, घूस लेने वाला, झूठे वादे करता है, अमीरों को जल्दी मिलता है, गरीबों को लेन में खड़ा करता है। तारीफ से खुश होता है, बात-बात पे डराता है। हमरा राइट नंबर एक दम सिंपल है जौन भगवान हम सबको बनाया उ में विस्वास करो और जे का तुम लोग बनाए हो उ डुप्लीकेट गॉड को हटाई दो।“
तपस्वी- “आप हमारे भगवान को हांथ लगाएंगे और हम चुपचाप बैठेंगे। बेटा, हमें अपने भगवान की रक्षा करना आता है।“
पीके- “तुम करेगा रच्छा भगवान का। तुम! अरे इत्ता सा है ई गोला, इससे बड़ा लाखों करोड़ो गोला घूम रहा है अंतरिक्स मा और तुम ये छोटा सा गोला का छोटे सा सहर की छोटी सी गली में बैठ के बोलता है कि तुम उ की रच्छा करेगा, जौन ये सारा जहान बनाया। उ को तोहार रक्छा का ज़रूरत नाहीं है। उ अपनी रक्छा खुद ही कर सकता है। आज कौनों अपना खुदा का रक्छा करने का कोसिस किया और हमरा दोस्त चला गया। बस ई रह गवा है उ का जूता। अपने भगवान की रक्छा करना बंद करो नहीं तो ई गोला पे इंसान नहीं सिर्फ जूता रह जाएगा।“
तपस्वी- “एक मुसलमान बम फोड़े और एक हिन्दू गुरु यहाँ बैठ के तुम्हारा लेक्चर सुने। ये अच्छा है, अच्छा है।“
पीके- “कौन हिन्दू? कौन मुसलमान? ठप्पा कहाँ है दिखाओ। ई फरक भगवान नहीं तुम लोग बनाया है और ए ही ई गोला का सबसे डेंजर रौंग नंबर है।“

इस पूरे संवाद को मैंने अक्षरशः यहाँ इसलिए उद्धरित किया है क्यूंकी ये बहुत साधारण सी आसानी से समझ में आने वाली बात है, कोई रॉकेट साइंस नहीं है जिसे समझने में किसी को भी परेशानी हो। ईश्वर, अल्लाह बस एक अद्भुत शक्ति है जिसमें विश्वास रखने से हमें साहस मिलता है। अगर धर्म कुछ है तो वो है इंसानियत/मानवता। जानवरों की बली दे के, ढेर सारा चढ़ावा चढ़ा के, वी.आई.पी. लाइन में लग कर दर्शन कर के, चादर चढ़ा के और किसी मूरत पर दूध-दही-घी की नदियां बहा के भगवान किसी को नहीं मिलता। भव्य और विशाल मंदिरों का निर्माण करा लो, स्वर्ण मूर्तियाँ स्थापित करा लो पर यदि मानवता के प्रति संभाव ना हो तो ऐसे स्थान पर ईश्वर का वास कभी नहीं होता। ये हमारे ही हांथ में है कि हम अपनी धरती पर क्या चाहते हैं। सुखी, प्रसन्न, मिलनसार मानवता या फिर जूतों का ढेर।

ईश्वर या ईश्वर का कोई भी घर हो मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या गिरजाघर। हर स्थान का मन्तव्य एक ही है। प्रेम, आस्था, श्रद्धा, समर्पण और शांति। चाहे किसी मंदिर में सुनाई देता राम/कृष्ण का भजन हो या निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह में गाया जाता छाप तिलक सब छीनी’, महसूस कर के देखिये तो दोनों ही ईश्वर से मिलवाते हैं। एक समान ही हृदय को छूते हुए आत्मा तक पहुँच जाते हैं। साईं धाम या तिरुपति बालाजी में करोड़ों रुपया दान करने के स्थान पे किसी गरीब बच्चे का भविष्य बना दीजिये, किसी असहाय बीमार का उपचार करा दीजिये, किसी गरीब बेटी का विवाह करा दीजिये और उसका भविष्य सुरक्षित कर दीजिये। दरगाहों पर चादर चढ़ाने की बजाए निर्वस्त्रों का तन ढक दीजिये। मूर्तियों पर दूध, दही बहाने के बजाए भूखों को खाना खिला दीजिये। यकीन मानिए आपको ईश्वर की प्राप्ति अवश्य होगी।

(और जो कुछ करने का मन ना बने तो बस इतना करिए कि समय पर अपना कर भरिये, बिजली चोरी ना करिए, संसाधनों का दुरुपयोग ना कीजिये और देश की प्रगति/उन्नति में योगदान दीजिये।)    


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Saturday, December 8, 2018

धर्मांधता


गाय हमारी माता है
हमको कुछ नहीं आता है
धर्म हमारा बाप है
बड़े ही 'चम्पक' आप हैं

'रावण' सारे चिल्ला के कह रहे
मंदिर वहीं बनाएँगे
पूछो तो एक बार राम से
क्या अब भी अयोध्या रह पाएंगे

राम की तिरपाल है भीगी
हिन्दू-मुस्लिम के खून से
मंदिर-मस्जिद जूझ रहे
सांप्रदायिकता के जुनून से

भूखा बच्चा, नंगा फकीर, मरती औरत सड़क किनारे
खाना, कपड़ा और बस दवा ही पुकारे
क्या आएंगे राम? क्या करेंगे वो ऐसा काम?
वो बेचारे बैठे बस राम सहारे

फुटों लंबी मूर्ति, बंदिर बनाओ विशाल
मानूँ तो तुमको तब, जो तुम बदल सको ये बिगड़ा हाल
राम के नाम पर सेंकते सब मतलब की रोटियाँ
वास्तविकता में असुर हो तुम पहने मानव की खाल

जो राम को मानो और राम को सोचो
जो राम को जानो और राम को समझो
भीतर बना लो मंदिर अपने और मूरत सजाओ
इंसान को इंसान समझो, खुद ही क्यूँ ना राम बन जाओ
दाढ़ी, मूंछ, पगड़ी, धोती और जनेऊ का भेद करने वालों
कहाँ लगा कर भेजा है 'उसने' ठप्पा.......
चलो फिर अब सब को दिखाओ  

Thursday, July 12, 2018

क्या हिन्दू धर्म में समलैंगिता अपराध है?


धारा 377 समलैंगिकता और समलैंगिक विवाह को स्वीकृति दिये जाने के संबंध में वर्तमान समय में चल रहे विवाद के चलते अनेक भ्रांतियाँ समाज मैं फैल गई हैं। धर्म के ठेकेदार जो गाहे-बगाहे हिन्दू धर्म से संबन्धित झूठ फैलाते रहते हैं, असल में वो अज्ञानी और धूर्त हैं जिन्हें धर्म का कोई ज्ञान है ही नहीं। क्या समलैंगिकता हिन्दू धर्म के अंतर्गत निषिद्ध है, अपराध है? जी नहीं! ऐसा बिलकुल नहीं हैं। अगर निरर्थक विरोध के स्थान पर आप इस तथ्य की खोज करने का प्रयास करें तो आपको इसका सही उत्तर स्वयं ही मिल जाएगा। पुरातन काल से ही हिन्दू धर्म में तीसरा लिंग या जिसे हम नपुंसक लिंग भी कहते हैं के साथ-साथ समलैंगिक सम्बन्धों का भी वर्णन होता आया है। ये अप्राक्रतिक, असमान्यता, बीमारी, या श्राप नहीं है। स्त्री, पुरुष जैसे एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं वैसे ही समान लिंग का भी एक दूसरे के प्रति आकर्षण कोई नयी बात नहीं है।

हिन्दू धर्म में ईश्वर को किसी भी रूप में पूजिये, शिव के रूप में, विष्णु के रूप में, श्री गणेश के रूप में, या कृष्ण के रूप में, आप पाएंगे कि उनसे जुड़ी कथाओं में हमें इस तथ्य की पुष्टि होते मिलती है। शिव का अर्धनारीश्वर स्वरूप, विष्णु का मोहिनी अवतार, श्री गणेश का विनायकी अवतार, श्री कृष्ण का राधा बनना और राधा का कृष्ण बन कर लीलाएँ करना। ये सब अध्यात्म से जुड़ा है पर हमारे लिए यही संदेश देता है कि हर व्यक्ति में स्त्री और पुरुष दोनों ही के सारे गुण और भावनाएं निवास करती हैं। समय आने पर या अवश्यकता अनुसार दोनों ही अपने रूप परिवर्तित करते हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार ही ये माना गया है कि स्त्री और पुरुष के मेल से उत्पन्न हुई संतान में हड्डियाँ पिता का और रक्त-मांस माता का अंश होता है। इसी संबंध में पुराणों में उल्लेख ये भी है कि जब दो स्त्रियाँ मिल कर एक संतान का निर्माण करती हैं तो उस संतान को हड्डी विहीन या ‘Boneless Child’ कहा जाता है। अध्यात्म तर्क के परे है इसलिए इस प्रकार के किसी भी तथ्य पर तर्क करना या प्रक्रिया की सत्यता प्रमाणित करना सरल नहीं है। ये एक बहुत बड़े शोध का विषय है।

हिन्दू धर्म के अनुसार ही प्रेम ईश्वरीय तत्व है और दो आत्माओं का मिलन ही प्रेम की उचित परिभाषा है। आत्माओं का कोई लिंग नहीं होता, आत्मा तो निराकार, निर्दोष, निर्गुण, अजर, अमर है। हम न जाने कितने ही जन्म लेते हैं, कब जाके हमें इस जीवन चक्र से मुक्ति मिलती हो किसी को नहीं पता। पर ये आवश्यक नहीं कि प्रत्येक बार हम उसी योनि के अंतर्गत जन्म लें जिसमें हम पिछले जन्म में थे। इस जन्म में मैं स्त्री हूँ तो अगले जन्म में पुरुष भी हो सकती हूँ और शायद तृतीय लिंग में भी मेरा जन्म हो सकता है। आज जिस व्यक्ति पुरुष या महिला से मुझे प्रेम है, मेरी आत्मा उस आत्मा को पहचानती है। अगले जन्म में क्या पता वो आत्मा मुझे किस रूप में मिले। स्त्री के रूप में, पुरुष के रूप में या तृतीय लिंग के रूप में। अगर वो मुझे मेरे समान लिंग के रूप में मिलती है तो मेरा उसकी ओर आकर्षित होना स्वाभाविक होगा। इस बात को परे रखते हुए कि वो मेरा समान लिंग है। प्रेम स्वतः उस आत्मा को पहचान लेगा।

कौन कहता है हिन्दू धर्म में समलैंगिकता अपराध है, निषेध है? अर्धनारीश्वर (शिव का स्त्री-पुरुष रूप), अरवन (एक नायक जिसे कृष्ण ने महिला बनने के बाद विवाह किया था), बहुचारा देवी (पारस्परिकता और गूढ़ता से जुड़ी हुईं एक देवी), भगवती देवी (क्रोस्ड्रेसिंग से जुड़ी हुई हिन्दू देवी), भागीरथ महाराजा (दो भारतीय माता-पिता से पैदा हुए एक भारतीय राजा), चैतन्य महाप्रभु (राधा और कृष्ण के अवतार), चंडी-चामुंडा (जुड़वां योद्धा देवी), गडधारा (पुरुष रूप में राधा का अवतार), गंगाम्मा देवी (एक देवी जो क्रोस्ड्रेसिंग और डिस्गाइस से जुड़ी हुई हैं), हरिहर देव (शिव और विष्णु का संयुक्त रूप), कार्तिकेय’, वल्लभवर्धन’, येलम्मा देवी और अनगिनत अन्य लिंग विविधता से जुड़े हिन्दू देवता हैं।

महाभारत काल की बात करें तो शिखंडी का वर्णन आवश्यक है। शिखंडी ने असल में एक स्त्री के रूप में जन्म लिया था जिसका नाम शिखंडनी रखा गया था। परंतु उसका पालन पोषण एक पुरुष के समान किया गया। आगे चल के उसका विवाह एक राजकुमारी से कर दिया गया और जैसे ही उस राजकुमारी को इस सत्य का आभास हुआ तो उसने शिखंडी का तिरस्कार करते हुए विवाह विच्छेद कर दिया। उसके पश्चात शिखंडी का साक्षात्कार एक योगिनी से हुआ और उन दोनों ने अपने लिंगों को एक दूसरे में स्थानांतरित किया। जिसके उपरांत शिखंडी ने पुरुष अवतार ग्रहण करते हुए स्त्री से विवाह किया और आगे का जीवन यापन किया।

पद्म पुराण की एक कथा की चर्चा करें तो राजा ने अपनी मृत्यु से पहले अपनी रानियों को ऐसी औषधी प्रदान की जिससे वो गर्भवती हो जाएँ। जिसके पश्चात कुछ रानियाँ पुरुष आवरण में दूरी से प्रेमालप करती थीं और अपनी संतानों को अपने गर्भ में रखे रहने और पालने के लिए विभिन्न औषधियों का सेवन किया करती थीं।

खजुराहो के मंदिरों की चर्चा किए बगैर इस लेख का उचित अंत नहीं किया जा सकता। आज भी वहाँ की दीवारों पर समलैंगिकता के उकेरे हुए चित्र दर्शित हैं जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। हिन्दू धर्म असल में एक अत्यधिक स्वतंत्र और उच्चश्रंखल धर्म है। जो विविधता से भरा पड़ा है। हाँ! ये बात और है कि काल परिवर्तन के अनुसार ग्रन्थों, पुराणों, उनकी व्याख्याओं को संशोधित कर दिया गया है। इसके चलते समाज होमोफोबिक (Homophobic) हो गया है। इस धर्म का पालन करने वालों से मेरी विनती है कि भ्रांतियों पर विश्वास करने से पहले और अज्ञान को गले लगाने से पहले अपने धर्म का गहराई से अध्धयन करें। नहीं कर सकते तो फिर कमसेकम भ्रांतियों का शिकार ना हों और प्रकृति की अवेहलना ना करें और इन झूठे, मक्कार, अज्ञानी धर्म के ठेकेदारों का समर्थन करना बंद करें।   

Sunday, June 24, 2018

देवदत्त पटनाइक और हिंदूइज़्म की व्याख्या


मिथक=मिथ्या
भारतीय साहित्यकारों में एक नाम देवदत्त पटनाइक ऐसा नाम है जिसे अपने लेखन और कार्यों के लिए भारत ने ज़रा देर में जाना और पहचाना। पर कहते हैं ना कि गुणी व्यक्ति की परख में ज़रा देर लगती ही है। देवदत्त पटनाइक एक भारतीय लेखक, पौराणिक कथाकार (mythologist), नेत्रत्व सलाहकार और संचारक हैं। ये मुख्यतः पुराणों और धर्म के द्वारा उत्पन्न किए गए मिथकों को तोड़ने का प्रयास करते हैं। इनके पास पुराणों के प्रत्येक प्रसंग के लिए तर्क और कारण होता है। मैंने इनके बारे में कुछ वर्ष पहले तब जाना जब टीवी के एपिक (Epic) चेनल पर इनकी एक सीरीज़ को देखा “देवलोक विद देवदत्त पटनाइक”। यूं तो इनहोने अनेकों किताबें लिखी हैं, और ये उन लेखकों में से हैं जो कभी रुकते नहीं। अमूमन एक लेखक अपनी एक किताब को लॉंच करने आता है, पर देवदत्त के ज्ञान का सागर इतना गहरा है कि जब वो अपनी एक किताब लॉंच करते हैं तो दूसरी प्रिंटिंग में होती है, तीसरी उनके कलम के नीचे और चौथी उनके दिमाग में। उनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ हैं:

जया’, माय गीता’, मिथ=मिथ्या’, ‘7 सीक्रेट्स ऑफ शिवा’, सीता-एन इलस्ट्रेटिड रामायना’, दि बुक ऑफ राम’, ‘7 सीक्रेट्स ऑफ विष्णु’, ’90 थौट्स ऑन गणेशा’, पशु’, देवलोक’...........इत्यादि। अनगिनत हैं सभी अंकित करना सरल नहीं। ना ही सबके बारे में एक साथ बात की जा सकती है। इसलिए आज मैंने उनकी एक रचना ‘Myth=Mithya’ (मिथक=मिथ्या) को अपना विषय बनाया है।

Myth=Mithya (मिथक=मिथ्या)- Decoding Hinduism:
अपनी इस पुस्तक में, जैसा कि नाम ही कहता है, देवदत्त हिन्दुत्व के मिथकों को तोड़ने का प्रयास करते दिखते हैं। वो ना सिर्फ हर घटना और प्रसंद के पीछे तर्क देते हैं बल्कि कारण भी बताते हैं। यहाँ तक कि वो ये स्पष्ट भी करते हैं कि कैसे कोई पौराणिक रीति वर्तमान समय की कुरीति बनी। हम उनकी पुस्तक को पूरा तो नहीं पर कुछ हद तक आगे निंलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझ सकते हैं।

1. जातिवाद और उंच-नीच के भेद को जाने में अगले 100 वर्ष और लगेंगे:
संसार के हर भाग में सामाजिक संरचनाएं हैं, जिनमें से सबसे आम है परिवार। उसके बाद है संप्रदाय। अब ये संप्रदाय या तो एक जनजाति हो सकती है या एक धर्म का पालन करने वाले लोग या फिर एक गुरु को मानने वाले या फिर एक ही पेशे से जुड़े लोगों का जत्था। भारत में ये पेशा ही था जो लोगों को जतियों में बांटता था, और यहाँ हजारों जातियाँ थीं। कुछ आनुवंशिक सूचनाओं से हमें ये ज्ञात होता है कि 2000 वर्ष पहले जतियों के बीच अंतर्मिलन की बहुत अधिकता थी। पर तभी कभी एंडोगामी (endogamy) यानी सगोत्र विवाह या रोटी-बेटी परंपरा ने अपना स्थान बना लिया। जिसका अर्थ था कि किसी एक जाती विशेष का कोई व्यक्ति अपना भोजन और अपनी बेटी किसी दूसरी जाती के व्यक्ति से नहीं बांटेगा। जिसका परिणाम ये हुआ कि जाति स्वयं ही एक आनुवंशिक जोड़ बन गयी और रक्त संबंध और एक ही पेशे की परंपरा को बढ़ावा मिला। समस्या शुरू हुई कुछ 1000 वर्ष पूर्व, जब इन्हीं जतियों ने अपनेआप को शुद्धता और अशुद्धता के मापदण्डों पर आंकना शुरू कर दिया। अब अगर परंपरा अनुसार देखें तो ये उंच-नीच संसार के हर कोने में मिलेगी पर आर्थिक और राजनीतिक आधार पर। परंतु भारत में इसे जन्म और रक्त शुद्धता से जोड़ा गया और शायद यही हिन्दुत्व का सबसे काला पहलू है।

2. भगवान को कोई फर्क नहीं पड़ता हम क्या पहनते हैं:
हिन्दु धर्म एक आदेशात्मक धर्म नहीं है और इसीलिए यहाँ कोई एक ईश्वर या आदेश देने वाला नहीं है जो आप पर नियंत्रण रखे। ऐसा कोई एक सार्वभौमिक हिन्दू नियम नहीं है जो लागू होता हो, क्यूंकी हिंदूइज़्म बहुत विशाल और विविध है। ये पूरी तरह से जाति प्रथा के इर्द गिर्द बुना गया है इसलिए यहाँ विभिन्न संप्रदाय हैं जो कि अलग-अलग वेषभूषा का अनुसरण करते हैं। उनका वेश पूरी तरह से उस देश के उस स्थान और पर्यावरण पर निर्भर करता है जहां वो रहते हैं। तो ऐसे विभिन्न फैशन पैदा हुए। भारत के प्राचीन काल में शरीर का ऊपरी भाग पूरी तरह से खुला रखा जाता था, इसलिए स्त्रियाँ भी अपने स्तनों को ढकती नहीं थीं। उस समय ये बिलकुल अभद्र या अश्लील नहीं समझा जाता था। वो तो बस कपड़े पहनने का एक तरीका था। इसीलिए मंदिरों की दीवारों पर उकेरे गए देवी-देवताओं के चित्रों में उनके ऊपरी भाग वस्त्रहीन होते है। फिर समय के बीतने के साथ ही शरीर के ऊपरी भाग को ढकना शुरू हो गया। तो इस प्रकार एकवस्त्र, द्विवस्त्र, त्रिवस्त्र, लज्जावस्त्र जैसी अनेक चीज़ें उत्पन्न हुईं। आखिरकार साड़ी का उद्भव हुआ जो शरीर के सभी भागों को ढकने के लिए वस्त्रों का एक मेल है। फिर घूँघट का आगमन हुआ जो कि भारत के दक्षिणी भाग की तुलना में उत्तरी भाग में ज़्यादा प्रचलित है।

3. शाकाहार को हिंदूइज़्म से जोड़ना गलत है:
विविधता हिन्दुत्व का एक मौलिक सिद्धांत है और इसीलिए यहाँ भोजन में बहुत विविधता है। यहाँ कोई एक निश्चित वस्तु नहीं है और हिंदूइज़्म एक बहुदेववादी विश्वास है, अनेक ईश्वर, अनेक प्रकार के भोजन की आदतें और इसीलिए किसी एक आदर्श हिन्दू भोजन जैसा यहाँ कुछ नहीं है। यहाँ शाकाहारी, मांसाहारी, अंडा खाने वाले, सभी तरह का मांस खाने वाले, सभी प्रकार के पौधे और फल खाने वाले लोगों का सम्मिश्रण है। भारतीय भोजन के तरीके की खास बात ये हैं कि यहाँ सारा खाना एक थाली में परोसा जाता है और आप जो भी खाना चाहते हैं उसे अपनी इक्षा के अनुसार उतनी ही मात्र में मिला-जुला के खा सकते हैं और जो आप नहीं खाना चाहते उस कटोरी को बस अपनी थाली से निकाल कर अलग कर सकते हैं। शाकाहार न तो पूरी तरह एक गुण है ना ही अवगुण। भारत में बौद्ध धर्म, जैन धर्म, तपस्वी और योगी परम्पराओं के आने के बाद ये चलन शुरू हुआ। जहां हर भौतिक या तामसिक वस्तु को दूर रखा जाए और इन्हीं परम्पराओं के चलते शाकाहार का उद्भव हुआ। उन्होने एक तरफ शाकाहार को अच्छी सेहत से जोड़ा और दूसरी तरफ जानवरों पे क्रूरता ना करने से क्यूंकी बहुत सी रीतियों में जानवरों की बली देने की भी परंपरा थी। इसी प्रकार शाकाहार को अहिंसा से जोड़ते हुए उच्च कुल या जातियों ने अपने धर्म और रक्त शुद्धता के रूप में इसे स्वीकार कर लिया।         

4. हिन्दुत्व में विवाह की परंपरा का उद्भव:
महाभारत कुंती और पांडु के बीच का एक रुचिकर संवाद है। जब हमें इतिहास के उस समय के बारे में बताया जाता है जहां विवाह की कोई परंपरा नहीं थी। स्त्री-पुरुष एक दूसरे के पास अपने सुख और इक्षा के आधार पर जाते थे। फिर एक दिन एक युवा साधू श्वेतकेतु अपनी माँ को किसी अन्य पुरुष के आलिंगन में देख लेते है और वो अपने पिता से इसकी शिकायत करते है। उसके पिता को इस बात से कोई आपत्ति नहीं है, और वो कहते हैं कि स्त्री कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र है जहां उसे सुख मिले। श्वेतकेतु को ये उत्तर उचित नहीं लगता और वो पित्रसत्ता को स्थान देने के लिए विवाह के विचार को संस्थापित करते हैं। तो इस तरह विवाह का चलन सफतौर पे इसलिए बनाया गया कि संतान को अपने पिता का ज्ञान हो। इसके साथ ही नियोग परंपरा की भी चर्चा होती है जहां अगर पुरुष संतान उत्पत्ति में असफल हो तो वो अपनी पत्नी को किसी अन्य पुरुष से संतान उत्पत्ति के लिए संबंध स्थापित करने की सहमति दे सकता है। महाभारत में विवाह, नियोग, संपत्ति और उत्तराधिकार सभी का एक घाल-मेल है। विवाह भी संपत्ति, संतोनत्पत्ति, उत्तराधिकार और पित्रसत्ता का एक रूप  है।

5. हिन्दुत्व और मासिक धर्म से जुड़ी कुरीतियाँ:
पुरातन काल में जब सैनिटरी नैप्किंस नहीं हुआ करते थे, और जब स्त्री माह में एक बार रक्त स्त्राव से पीड़ित होती थी, उसका रक्त धरती पर गिरता था। जब शुद्धता का पहलू चलन में आया तो उस स्त्राव को दूषित माना गया। उस समय थूक, पसीना और मासिक रक्त स्त्राव को वैदिक परम्पराओं में दूषित माना जाता था। पर तांत्रिक परम्पराओं में नहीं। तांत्रिक परम्पराओं में इसे राजस (जिसकी पूजा की जाए) कहा जाता था। तांत्रिक कलाओं को देखें तो उनमें स्त्री के जननांगों और मासिक रक्त स्त्राव को बड़ी महत्ता दी जाती है क्यूंकी ये मानव जाती को मृत्यु, प्रेम और नए जीवन का भान कराते हैं। पर वैदिक परम्पराओं में यज्ञ शाला के आस पास इसे अशुभ माना जाता था और इसलिए स्त्रियॉं को दूर रखा जाता था। इसी तरह स्त्रियॉं को उनके मासिक धर्म में अकेला छोड़ देने की परंपरा शुरू हुई। ये सब तब था जब सैनीटरी नैप्किंस नहीं थे। आज विभिन्न उत्पाद मौजूद हैं और विज्ञान ने मासिक धर्म और रक्त स्त्राव से संबन्धित सारे ही मिथकों को तोड़ दिया है।

6. हिन्दुत्व और यौन संबंध (सेक्स):
यौन संबंध या सेक्स हिंदूइज़्म का एक महत्वपूर्ण भाग है। हिंदूइज़्म के शुरुआती दौर में इस बात पर गहन वाद-विवाद रहा कि अविवाहित रहना अधिक उचित है या यौन सम्बन्धों में पूरी तरह से भाग लेना या क्या विवाह में बंध कर यौन सम्बन्धों में भाग लेना सर्वथा उचित है। इस प्रकार यहाँ सेक्स से जुड़े हर प्रकार के विचार हैं, धर्म के लिए यौन संबंध (sex for dharma), मोक्ष के लिए (sex for moksha), अर्थ के लिए (sex for business), काम के लिए (sex for pleasure)। तंत्र के लिए यौन संबंध (tantra sex) जिसमें सेक्स एक तकनीक की तरह प्रयुक्त होता है जिसके द्वारा साधक मुक्ति के मार्ग को साधता है या अपने और दूसरे शरीरों और उनकी क्रियाओं को समझना चाहता है। कैसे शरीर मस्तिष्क पर नियंत्रण पा लेता है और कैसे इन तीव्र अनुभूतियों को शरीर विकसित करता है। हिंदूइज़्म में सेक्स के प्रति एक विशाल समझ है, यहाँ सिर्फ संतानोपत्ति के लिए भी यौन संबंध हैं, इसलिए धर्मशास्त्र केवल संतानोत्पत्ति के संबंध में ही यौन सम्बन्धों की बात करता है। भूगोल और ऐतिहासिक कालों के साथ ही इस संबंध में विचार भी परिवर्तित होते रहते हैं।

7. हिन्दू पुराणों में तीसरे लिंग को पहचान मिली:
हिंदूइज़्म विविधता का प्रतीक है और यहाँ विभिन्न प्रकार के सम्बन्धों को पहचान भी मिली है। Heterosexual (विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण), Homosexual (समान लिंग के प्रति आकर्षण), Monogamy (एक पत्नी प्रथा), Polygamy (बहु पत्नी प्रथा), Monandry (एक पति प्रथा), Polyandry (बहु पति प्रथा), और Serial Monogamy, जो भी प्रकृति में मौजूद है। एक तरफ हंसों का जोड़ा है पूरा जीवन एक ही साथी के साथ व्यतीत करते हैं तो दूसरी तरफ वानर हैं जो झुंड में साथियों का चुनाव करते हैं। प्रकृति में सब कुछ मौजूद है। पौराणिक कथाओं में हम देखते हैं कि स्त्री पुरुष में और पुरुष स्त्री में परिवर्तित हो जाता है, इस प्रकार तीसरे लिंग को बौद्ध धर्म, जैन धर्म, हिन्दू धर्म में एक संभावना की तरह पहचान मिली है। बौद्ध धर्म में पंडक (pandaka), संस्कृत में क्लिबा (klibba), नपुंसक (napunsaka) और पेदी (pedi) शब्द का प्रयोग होता आया है। भारत के पास इस तीसरे लिंग के लिए अनेकानेक नाम और पहचान है। जो इस तथ्य का प्रमाण है कि इस बात को पूरी परिपक्वता के साथ समझा और गृहण किया जाए की प्रकृति में तीसरा लिंग या homosexuality मौजूद है।       
   


Tuesday, June 12, 2018

चलें थोड़ा धर्म के इतिहास में

भाग-2

.............भारत पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के बाद आर्यों ने यहाँ सनातन धर्म की स्थापना की। सनातन (eternal) का अर्थ है सदा-सर्वदा विद्यमान रहने वाला। जिसे आज हम हिन्दू धर्म या हिंदूइज़्म के नाम से जानते हैं और पालन करते हैं। हिन्दू शब्द सिंधु से उत्पन्न अपभ्रंश है। सनातन धर्म कब हिन्दू धर्म में परिवर्तित हो गया, इस बात का कहीं कोई ठोस प्रमाण नहीं है। हिन्दू असल में एक फारसी शब्द है जिसका संबंध धर्म से नहीं है। हिन्दू शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट संस्कृति का अनुकरण करने वाले एक ही प्रजाति के लोगों के लिए किया गया। आर्य जैसे अपने साथ धर्म ले कर आए वैसे ही जातिवाद और वर्ण व्यवस्था भी। उस समय उनकी वर्ण व्यवस्था उनके पुरुषों के जनेऊ से प्रदर्शित होती थी। उच्च कुल सोने का जनेऊ, मध्यम कुल चाँदी का जनेऊ और नीच कुल तांबे का जनेऊ धारण करते थे। स्त्रियों के प्रति आर्यों की विचारधारा उनके घर और गृहस्थी तक सीमित रहने वाली थी। स्त्रियों को शिक्षा, शस्त्र विद्या, नीति, आदि के लायक नहीं माना जाता था। उन्हें मात्र विवाह कर पुत्र उत्पत्ति और पति सेवा का साधन माना जाता था।

हमने जो इतिहास पढ़ा है उससे हमें ये लगता है कि मुग़लों के आने के बाद उनके अत्याचारों से बचने के लिए पर्दा प्रथा और बाल विवाह का प्रचलन चला। जबकि राहुल सांकृत्यायन अपनी रचना वोल्गा से गंगा में ये स्पष्ट कर चुके हैं कि आर्यों के समय से ही बाल विवाह का प्रचलन था। उन्होने लिखा है, जब स्त्री रजस्वला (puberty) हो जाए तो उसका विवाह कर देना चाहिए।“ स्त्री के राजस्वला होने की सामान्य उम्र 8 वर्ष से प्रारम्भ हो जाती है। इस अनुसार तो हम इस व्याख्या को बाल विवाह ही कह सकते हैं।  

मैं ना तो धर्म विरोधी हूँ, ना ही मुझे हिन्दू धर्म से कोई आपत्ति है। पर जिस धर्म पर हम इतना गर्व महसूस करते हैं, देश को दी गयी सारी कुरीतियाँ उसी धर्म से आई हैं। आज हिन्दुत्व के नाम पर देश भर में कितने ही भ्रम फैले हुए हैं। हमें लगता है कि केवल भारत में ही हिन्दू धर्म की मान्यता है। जबकि सच्चाई ये है कि संसार के कई देशों में हिन्दू धर्म को पालन करने वाली जनसंख्या मौजूद है। भारत, नेपाल, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, श्री लंका, मलेशिया, संयुक्त राज्य, मयानमार, यूनाइटिड किंग्डम, केनेडा, दक्षिण अफ्रीका, मौरिशस और करिबियन (पश्चिमी इंडीस)। ये वो देश है जहां 500,000 से अधिक हिन्दू नागरिक शामिल हैं (घटती हुई संख्या में)। माना कि हिन्दू धर्म सबसे पुराना है, और जब इस धर्म की स्थापना की गयी, शायद इंडोनेशिया में सबसे पहले सनातन धर्म के रूप में, तो ज़रूर ही ज्ञानी महापुरुषों को अपने देश की जनसंख्या को अराजकता से बचाने का यही एक मात्र समर्थ साधन महसूस हुआ होगा। पर गौर करें तो और इन महापुरुषों को आर्य ही कह कर संबोधित करें तो ये समझ आता है कि क्षेत्र विस्तार के लिए साम-दाम-दण्ड और भेद भी आर्यों की ही उपज रही है। इस सीमा विस्तार और धर्म का विस्तार ये परिणाम लाया कि जो आर्यों का मूल देश था यानी इंडोनेशिया जो कभी हिन्दू देश हुआ करता था वो अब एक इस्लामिक देश है।

सीमा विस्तार का सीधा सा अर्थ होता है युद्ध, जिसका परिणाम निर्दोषों की हत्या, भौगोलिक-सामाजिक और प्राक्रतिक साधनों का विनाश। एक पक्ष की विजय और दूसरे पक्ष की पराजय। उसके बाद बर्बाद हुए देश या राज्य का पुनर्निर्माण। आर्यों द्वारा प्रारम्भ किए हुए इस चलन को फिर  भारत अनेकानेक बार झेलता गया। हाँ, आर्यों ने यहाँ अपना वर्चस्व स्थापित करने के बाद देश को प्रगति की ओर अग्रसर किया। शिक्षा के नए स्त्रोत खोले, चिकित्सा के क्षेत्र में प्रगति की। पर ये सब मात्र पुरुषों तक सीमित रहा। स्त्रियों का दमन हुआ और केवल दमन ही हुआ। बाल-विवाह, सती प्रथा, बेमेल विवाह जैसी कुरीतियों को बढ़ावा मिलता गया। जैसे-जैसे भारत समर्थ होता गया, वैसे-वैसे ही विदेशी आक्रमण भी होते गए। पहले फारसी, फिर यूनानी, फिर अफगानी (लुटेरे), फिर मुग़ल और फिर अंग्रेज़ आते गए और वही दोहराते गए जिसका चलन आर्यों ने आरंभ किया था। इन सब के बीच पुर्तगालियों और चीनी व्यापारियों का भी आवा गमन होता रहा जो भारत से गुड़ और मसाले ले जाते रहे। चीन ने गुड़ से शक्कर बनाने का नुस्खा यहीं से सीखा और अपने देश जा कर यहाँ से बेहतर उत्पादन किया। आज हाल ये है कि चीन शक्कर का एक बहुत बड़ा उत्पादक देश है।

जैसे आर्यों का हमारे इतिहास में एक अभिन्न अस्तित्व है वैसे ही दूसरे आक्रमणकारियों और फिर शासकों का भी। हालांकि अगर केवल आर्यों और द्रविड़ों के बीच के फर्क को समझना हो तो उत्तर और दक्षिण में जो फर्क है उसी से समझ आ जाता है। उत्तर में आज भी स्त्रियॉं की स्थिति दक्षिण से निम्न ही है। दक्षिण में न केवल स्त्रियाँ परंतु पूरी जनसंख्या का रुझान शिक्षा और तकनीक की तरफ देखा जा सकता है। आज भी दक्षिण की स्त्रियाँ ज़्यादा शिक्षित और समर्थ हैं। जबकि उत्तर में इस शिक्षा और समर्थता का स्तर काफी नीचे है।

मैं हिन्दू हूँ, और मैं इस बात पर गर्व करती हूँ। किसी और भी धर्म के अंतर्गत पैदा हुई होती तो भी करती। क्यूंकी मैं अपने धर्म से केवल वो और वहाँ तक
 सीखने और समझने का प्रयास करती हूँ जहां तक मुझे किसी को चोट पहुंचाना, अपमान करना, नहीं सिखाया जाता। मेरे लिए मेरा ईश्वर मेरे मन में एक शक्ति के समान स्थित है जो मुझे विवेक देता है। उसे मुझे किसी रूप, आकार, रंग और मूर्ति में ढालने की ज़रूरत नहीं पड़ती।

धर्म हमें संयमित रखने के लिए है डराने और दबाव बनाने के लिए नहीं। जिस प्रकार किसी का वर्ण न हो उसे वर्ण शंकर कहते हैं, और अगर मेरा धर्म मुझे कुछ अनुचित करने को कभी बाध्य करेगा या कोई मुझे धर्म के नाम पर अनुचित कहने या करने को बाध्य करेगा तो मैं बिना किसी धर्म के धर्म शंकर कहलना पसंद करूंगी।