Sunday, June 24, 2018

देवदत्त पटनाइक और हिंदूइज़्म की व्याख्या


मिथक=मिथ्या
भारतीय साहित्यकारों में एक नाम देवदत्त पटनाइक ऐसा नाम है जिसे अपने लेखन और कार्यों के लिए भारत ने ज़रा देर में जाना और पहचाना। पर कहते हैं ना कि गुणी व्यक्ति की परख में ज़रा देर लगती ही है। देवदत्त पटनाइक एक भारतीय लेखक, पौराणिक कथाकार (mythologist), नेत्रत्व सलाहकार और संचारक हैं। ये मुख्यतः पुराणों और धर्म के द्वारा उत्पन्न किए गए मिथकों को तोड़ने का प्रयास करते हैं। इनके पास पुराणों के प्रत्येक प्रसंग के लिए तर्क और कारण होता है। मैंने इनके बारे में कुछ वर्ष पहले तब जाना जब टीवी के एपिक (Epic) चेनल पर इनकी एक सीरीज़ को देखा “देवलोक विद देवदत्त पटनाइक”। यूं तो इनहोने अनेकों किताबें लिखी हैं, और ये उन लेखकों में से हैं जो कभी रुकते नहीं। अमूमन एक लेखक अपनी एक किताब को लॉंच करने आता है, पर देवदत्त के ज्ञान का सागर इतना गहरा है कि जब वो अपनी एक किताब लॉंच करते हैं तो दूसरी प्रिंटिंग में होती है, तीसरी उनके कलम के नीचे और चौथी उनके दिमाग में। उनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ हैं:

जया’, माय गीता’, मिथ=मिथ्या’, ‘7 सीक्रेट्स ऑफ शिवा’, सीता-एन इलस्ट्रेटिड रामायना’, दि बुक ऑफ राम’, ‘7 सीक्रेट्स ऑफ विष्णु’, ’90 थौट्स ऑन गणेशा’, पशु’, देवलोक’...........इत्यादि। अनगिनत हैं सभी अंकित करना सरल नहीं। ना ही सबके बारे में एक साथ बात की जा सकती है। इसलिए आज मैंने उनकी एक रचना ‘Myth=Mithya’ (मिथक=मिथ्या) को अपना विषय बनाया है।

Myth=Mithya (मिथक=मिथ्या)- Decoding Hinduism:
अपनी इस पुस्तक में, जैसा कि नाम ही कहता है, देवदत्त हिन्दुत्व के मिथकों को तोड़ने का प्रयास करते दिखते हैं। वो ना सिर्फ हर घटना और प्रसंद के पीछे तर्क देते हैं बल्कि कारण भी बताते हैं। यहाँ तक कि वो ये स्पष्ट भी करते हैं कि कैसे कोई पौराणिक रीति वर्तमान समय की कुरीति बनी। हम उनकी पुस्तक को पूरा तो नहीं पर कुछ हद तक आगे निंलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझ सकते हैं।

1. जातिवाद और उंच-नीच के भेद को जाने में अगले 100 वर्ष और लगेंगे:
संसार के हर भाग में सामाजिक संरचनाएं हैं, जिनमें से सबसे आम है परिवार। उसके बाद है संप्रदाय। अब ये संप्रदाय या तो एक जनजाति हो सकती है या एक धर्म का पालन करने वाले लोग या फिर एक गुरु को मानने वाले या फिर एक ही पेशे से जुड़े लोगों का जत्था। भारत में ये पेशा ही था जो लोगों को जतियों में बांटता था, और यहाँ हजारों जातियाँ थीं। कुछ आनुवंशिक सूचनाओं से हमें ये ज्ञात होता है कि 2000 वर्ष पहले जतियों के बीच अंतर्मिलन की बहुत अधिकता थी। पर तभी कभी एंडोगामी (endogamy) यानी सगोत्र विवाह या रोटी-बेटी परंपरा ने अपना स्थान बना लिया। जिसका अर्थ था कि किसी एक जाती विशेष का कोई व्यक्ति अपना भोजन और अपनी बेटी किसी दूसरी जाती के व्यक्ति से नहीं बांटेगा। जिसका परिणाम ये हुआ कि जाति स्वयं ही एक आनुवंशिक जोड़ बन गयी और रक्त संबंध और एक ही पेशे की परंपरा को बढ़ावा मिला। समस्या शुरू हुई कुछ 1000 वर्ष पूर्व, जब इन्हीं जतियों ने अपनेआप को शुद्धता और अशुद्धता के मापदण्डों पर आंकना शुरू कर दिया। अब अगर परंपरा अनुसार देखें तो ये उंच-नीच संसार के हर कोने में मिलेगी पर आर्थिक और राजनीतिक आधार पर। परंतु भारत में इसे जन्म और रक्त शुद्धता से जोड़ा गया और शायद यही हिन्दुत्व का सबसे काला पहलू है।

2. भगवान को कोई फर्क नहीं पड़ता हम क्या पहनते हैं:
हिन्दु धर्म एक आदेशात्मक धर्म नहीं है और इसीलिए यहाँ कोई एक ईश्वर या आदेश देने वाला नहीं है जो आप पर नियंत्रण रखे। ऐसा कोई एक सार्वभौमिक हिन्दू नियम नहीं है जो लागू होता हो, क्यूंकी हिंदूइज़्म बहुत विशाल और विविध है। ये पूरी तरह से जाति प्रथा के इर्द गिर्द बुना गया है इसलिए यहाँ विभिन्न संप्रदाय हैं जो कि अलग-अलग वेषभूषा का अनुसरण करते हैं। उनका वेश पूरी तरह से उस देश के उस स्थान और पर्यावरण पर निर्भर करता है जहां वो रहते हैं। तो ऐसे विभिन्न फैशन पैदा हुए। भारत के प्राचीन काल में शरीर का ऊपरी भाग पूरी तरह से खुला रखा जाता था, इसलिए स्त्रियाँ भी अपने स्तनों को ढकती नहीं थीं। उस समय ये बिलकुल अभद्र या अश्लील नहीं समझा जाता था। वो तो बस कपड़े पहनने का एक तरीका था। इसीलिए मंदिरों की दीवारों पर उकेरे गए देवी-देवताओं के चित्रों में उनके ऊपरी भाग वस्त्रहीन होते है। फिर समय के बीतने के साथ ही शरीर के ऊपरी भाग को ढकना शुरू हो गया। तो इस प्रकार एकवस्त्र, द्विवस्त्र, त्रिवस्त्र, लज्जावस्त्र जैसी अनेक चीज़ें उत्पन्न हुईं। आखिरकार साड़ी का उद्भव हुआ जो शरीर के सभी भागों को ढकने के लिए वस्त्रों का एक मेल है। फिर घूँघट का आगमन हुआ जो कि भारत के दक्षिणी भाग की तुलना में उत्तरी भाग में ज़्यादा प्रचलित है।

3. शाकाहार को हिंदूइज़्म से जोड़ना गलत है:
विविधता हिन्दुत्व का एक मौलिक सिद्धांत है और इसीलिए यहाँ भोजन में बहुत विविधता है। यहाँ कोई एक निश्चित वस्तु नहीं है और हिंदूइज़्म एक बहुदेववादी विश्वास है, अनेक ईश्वर, अनेक प्रकार के भोजन की आदतें और इसीलिए किसी एक आदर्श हिन्दू भोजन जैसा यहाँ कुछ नहीं है। यहाँ शाकाहारी, मांसाहारी, अंडा खाने वाले, सभी तरह का मांस खाने वाले, सभी प्रकार के पौधे और फल खाने वाले लोगों का सम्मिश्रण है। भारतीय भोजन के तरीके की खास बात ये हैं कि यहाँ सारा खाना एक थाली में परोसा जाता है और आप जो भी खाना चाहते हैं उसे अपनी इक्षा के अनुसार उतनी ही मात्र में मिला-जुला के खा सकते हैं और जो आप नहीं खाना चाहते उस कटोरी को बस अपनी थाली से निकाल कर अलग कर सकते हैं। शाकाहार न तो पूरी तरह एक गुण है ना ही अवगुण। भारत में बौद्ध धर्म, जैन धर्म, तपस्वी और योगी परम्पराओं के आने के बाद ये चलन शुरू हुआ। जहां हर भौतिक या तामसिक वस्तु को दूर रखा जाए और इन्हीं परम्पराओं के चलते शाकाहार का उद्भव हुआ। उन्होने एक तरफ शाकाहार को अच्छी सेहत से जोड़ा और दूसरी तरफ जानवरों पे क्रूरता ना करने से क्यूंकी बहुत सी रीतियों में जानवरों की बली देने की भी परंपरा थी। इसी प्रकार शाकाहार को अहिंसा से जोड़ते हुए उच्च कुल या जातियों ने अपने धर्म और रक्त शुद्धता के रूप में इसे स्वीकार कर लिया।         

4. हिन्दुत्व में विवाह की परंपरा का उद्भव:
महाभारत कुंती और पांडु के बीच का एक रुचिकर संवाद है। जब हमें इतिहास के उस समय के बारे में बताया जाता है जहां विवाह की कोई परंपरा नहीं थी। स्त्री-पुरुष एक दूसरे के पास अपने सुख और इक्षा के आधार पर जाते थे। फिर एक दिन एक युवा साधू श्वेतकेतु अपनी माँ को किसी अन्य पुरुष के आलिंगन में देख लेते है और वो अपने पिता से इसकी शिकायत करते है। उसके पिता को इस बात से कोई आपत्ति नहीं है, और वो कहते हैं कि स्त्री कहीं भी जाने के लिए स्वतंत्र है जहां उसे सुख मिले। श्वेतकेतु को ये उत्तर उचित नहीं लगता और वो पित्रसत्ता को स्थान देने के लिए विवाह के विचार को संस्थापित करते हैं। तो इस तरह विवाह का चलन सफतौर पे इसलिए बनाया गया कि संतान को अपने पिता का ज्ञान हो। इसके साथ ही नियोग परंपरा की भी चर्चा होती है जहां अगर पुरुष संतान उत्पत्ति में असफल हो तो वो अपनी पत्नी को किसी अन्य पुरुष से संतान उत्पत्ति के लिए संबंध स्थापित करने की सहमति दे सकता है। महाभारत में विवाह, नियोग, संपत्ति और उत्तराधिकार सभी का एक घाल-मेल है। विवाह भी संपत्ति, संतोनत्पत्ति, उत्तराधिकार और पित्रसत्ता का एक रूप  है।

5. हिन्दुत्व और मासिक धर्म से जुड़ी कुरीतियाँ:
पुरातन काल में जब सैनिटरी नैप्किंस नहीं हुआ करते थे, और जब स्त्री माह में एक बार रक्त स्त्राव से पीड़ित होती थी, उसका रक्त धरती पर गिरता था। जब शुद्धता का पहलू चलन में आया तो उस स्त्राव को दूषित माना गया। उस समय थूक, पसीना और मासिक रक्त स्त्राव को वैदिक परम्पराओं में दूषित माना जाता था। पर तांत्रिक परम्पराओं में नहीं। तांत्रिक परम्पराओं में इसे राजस (जिसकी पूजा की जाए) कहा जाता था। तांत्रिक कलाओं को देखें तो उनमें स्त्री के जननांगों और मासिक रक्त स्त्राव को बड़ी महत्ता दी जाती है क्यूंकी ये मानव जाती को मृत्यु, प्रेम और नए जीवन का भान कराते हैं। पर वैदिक परम्पराओं में यज्ञ शाला के आस पास इसे अशुभ माना जाता था और इसलिए स्त्रियॉं को दूर रखा जाता था। इसी तरह स्त्रियॉं को उनके मासिक धर्म में अकेला छोड़ देने की परंपरा शुरू हुई। ये सब तब था जब सैनीटरी नैप्किंस नहीं थे। आज विभिन्न उत्पाद मौजूद हैं और विज्ञान ने मासिक धर्म और रक्त स्त्राव से संबन्धित सारे ही मिथकों को तोड़ दिया है।

6. हिन्दुत्व और यौन संबंध (सेक्स):
यौन संबंध या सेक्स हिंदूइज़्म का एक महत्वपूर्ण भाग है। हिंदूइज़्म के शुरुआती दौर में इस बात पर गहन वाद-विवाद रहा कि अविवाहित रहना अधिक उचित है या यौन सम्बन्धों में पूरी तरह से भाग लेना या क्या विवाह में बंध कर यौन सम्बन्धों में भाग लेना सर्वथा उचित है। इस प्रकार यहाँ सेक्स से जुड़े हर प्रकार के विचार हैं, धर्म के लिए यौन संबंध (sex for dharma), मोक्ष के लिए (sex for moksha), अर्थ के लिए (sex for business), काम के लिए (sex for pleasure)। तंत्र के लिए यौन संबंध (tantra sex) जिसमें सेक्स एक तकनीक की तरह प्रयुक्त होता है जिसके द्वारा साधक मुक्ति के मार्ग को साधता है या अपने और दूसरे शरीरों और उनकी क्रियाओं को समझना चाहता है। कैसे शरीर मस्तिष्क पर नियंत्रण पा लेता है और कैसे इन तीव्र अनुभूतियों को शरीर विकसित करता है। हिंदूइज़्म में सेक्स के प्रति एक विशाल समझ है, यहाँ सिर्फ संतानोपत्ति के लिए भी यौन संबंध हैं, इसलिए धर्मशास्त्र केवल संतानोत्पत्ति के संबंध में ही यौन सम्बन्धों की बात करता है। भूगोल और ऐतिहासिक कालों के साथ ही इस संबंध में विचार भी परिवर्तित होते रहते हैं।

7. हिन्दू पुराणों में तीसरे लिंग को पहचान मिली:
हिंदूइज़्म विविधता का प्रतीक है और यहाँ विभिन्न प्रकार के सम्बन्धों को पहचान भी मिली है। Heterosexual (विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण), Homosexual (समान लिंग के प्रति आकर्षण), Monogamy (एक पत्नी प्रथा), Polygamy (बहु पत्नी प्रथा), Monandry (एक पति प्रथा), Polyandry (बहु पति प्रथा), और Serial Monogamy, जो भी प्रकृति में मौजूद है। एक तरफ हंसों का जोड़ा है पूरा जीवन एक ही साथी के साथ व्यतीत करते हैं तो दूसरी तरफ वानर हैं जो झुंड में साथियों का चुनाव करते हैं। प्रकृति में सब कुछ मौजूद है। पौराणिक कथाओं में हम देखते हैं कि स्त्री पुरुष में और पुरुष स्त्री में परिवर्तित हो जाता है, इस प्रकार तीसरे लिंग को बौद्ध धर्म, जैन धर्म, हिन्दू धर्म में एक संभावना की तरह पहचान मिली है। बौद्ध धर्म में पंडक (pandaka), संस्कृत में क्लिबा (klibba), नपुंसक (napunsaka) और पेदी (pedi) शब्द का प्रयोग होता आया है। भारत के पास इस तीसरे लिंग के लिए अनेकानेक नाम और पहचान है। जो इस तथ्य का प्रमाण है कि इस बात को पूरी परिपक्वता के साथ समझा और गृहण किया जाए की प्रकृति में तीसरा लिंग या homosexuality मौजूद है।       
   


Tuesday, June 12, 2018

चलें थोड़ा धर्म के इतिहास में

भाग-2

.............भारत पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के बाद आर्यों ने यहाँ सनातन धर्म की स्थापना की। सनातन (eternal) का अर्थ है सदा-सर्वदा विद्यमान रहने वाला। जिसे आज हम हिन्दू धर्म या हिंदूइज़्म के नाम से जानते हैं और पालन करते हैं। हिन्दू शब्द सिंधु से उत्पन्न अपभ्रंश है। सनातन धर्म कब हिन्दू धर्म में परिवर्तित हो गया, इस बात का कहीं कोई ठोस प्रमाण नहीं है। हिन्दू असल में एक फारसी शब्द है जिसका संबंध धर्म से नहीं है। हिन्दू शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट संस्कृति का अनुकरण करने वाले एक ही प्रजाति के लोगों के लिए किया गया। आर्य जैसे अपने साथ धर्म ले कर आए वैसे ही जातिवाद और वर्ण व्यवस्था भी। उस समय उनकी वर्ण व्यवस्था उनके पुरुषों के जनेऊ से प्रदर्शित होती थी। उच्च कुल सोने का जनेऊ, मध्यम कुल चाँदी का जनेऊ और नीच कुल तांबे का जनेऊ धारण करते थे। स्त्रियों के प्रति आर्यों की विचारधारा उनके घर और गृहस्थी तक सीमित रहने वाली थी। स्त्रियों को शिक्षा, शस्त्र विद्या, नीति, आदि के लायक नहीं माना जाता था। उन्हें मात्र विवाह कर पुत्र उत्पत्ति और पति सेवा का साधन माना जाता था।

हमने जो इतिहास पढ़ा है उससे हमें ये लगता है कि मुग़लों के आने के बाद उनके अत्याचारों से बचने के लिए पर्दा प्रथा और बाल विवाह का प्रचलन चला। जबकि राहुल सांकृत्यायन अपनी रचना वोल्गा से गंगा में ये स्पष्ट कर चुके हैं कि आर्यों के समय से ही बाल विवाह का प्रचलन था। उन्होने लिखा है, जब स्त्री रजस्वला (puberty) हो जाए तो उसका विवाह कर देना चाहिए।“ स्त्री के राजस्वला होने की सामान्य उम्र 8 वर्ष से प्रारम्भ हो जाती है। इस अनुसार तो हम इस व्याख्या को बाल विवाह ही कह सकते हैं।  

मैं ना तो धर्म विरोधी हूँ, ना ही मुझे हिन्दू धर्म से कोई आपत्ति है। पर जिस धर्म पर हम इतना गर्व महसूस करते हैं, देश को दी गयी सारी कुरीतियाँ उसी धर्म से आई हैं। आज हिन्दुत्व के नाम पर देश भर में कितने ही भ्रम फैले हुए हैं। हमें लगता है कि केवल भारत में ही हिन्दू धर्म की मान्यता है। जबकि सच्चाई ये है कि संसार के कई देशों में हिन्दू धर्म को पालन करने वाली जनसंख्या मौजूद है। भारत, नेपाल, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, श्री लंका, मलेशिया, संयुक्त राज्य, मयानमार, यूनाइटिड किंग्डम, केनेडा, दक्षिण अफ्रीका, मौरिशस और करिबियन (पश्चिमी इंडीस)। ये वो देश है जहां 500,000 से अधिक हिन्दू नागरिक शामिल हैं (घटती हुई संख्या में)। माना कि हिन्दू धर्म सबसे पुराना है, और जब इस धर्म की स्थापना की गयी, शायद इंडोनेशिया में सबसे पहले सनातन धर्म के रूप में, तो ज़रूर ही ज्ञानी महापुरुषों को अपने देश की जनसंख्या को अराजकता से बचाने का यही एक मात्र समर्थ साधन महसूस हुआ होगा। पर गौर करें तो और इन महापुरुषों को आर्य ही कह कर संबोधित करें तो ये समझ आता है कि क्षेत्र विस्तार के लिए साम-दाम-दण्ड और भेद भी आर्यों की ही उपज रही है। इस सीमा विस्तार और धर्म का विस्तार ये परिणाम लाया कि जो आर्यों का मूल देश था यानी इंडोनेशिया जो कभी हिन्दू देश हुआ करता था वो अब एक इस्लामिक देश है।

सीमा विस्तार का सीधा सा अर्थ होता है युद्ध, जिसका परिणाम निर्दोषों की हत्या, भौगोलिक-सामाजिक और प्राक्रतिक साधनों का विनाश। एक पक्ष की विजय और दूसरे पक्ष की पराजय। उसके बाद बर्बाद हुए देश या राज्य का पुनर्निर्माण। आर्यों द्वारा प्रारम्भ किए हुए इस चलन को फिर  भारत अनेकानेक बार झेलता गया। हाँ, आर्यों ने यहाँ अपना वर्चस्व स्थापित करने के बाद देश को प्रगति की ओर अग्रसर किया। शिक्षा के नए स्त्रोत खोले, चिकित्सा के क्षेत्र में प्रगति की। पर ये सब मात्र पुरुषों तक सीमित रहा। स्त्रियों का दमन हुआ और केवल दमन ही हुआ। बाल-विवाह, सती प्रथा, बेमेल विवाह जैसी कुरीतियों को बढ़ावा मिलता गया। जैसे-जैसे भारत समर्थ होता गया, वैसे-वैसे ही विदेशी आक्रमण भी होते गए। पहले फारसी, फिर यूनानी, फिर अफगानी (लुटेरे), फिर मुग़ल और फिर अंग्रेज़ आते गए और वही दोहराते गए जिसका चलन आर्यों ने आरंभ किया था। इन सब के बीच पुर्तगालियों और चीनी व्यापारियों का भी आवा गमन होता रहा जो भारत से गुड़ और मसाले ले जाते रहे। चीन ने गुड़ से शक्कर बनाने का नुस्खा यहीं से सीखा और अपने देश जा कर यहाँ से बेहतर उत्पादन किया। आज हाल ये है कि चीन शक्कर का एक बहुत बड़ा उत्पादक देश है।

जैसे आर्यों का हमारे इतिहास में एक अभिन्न अस्तित्व है वैसे ही दूसरे आक्रमणकारियों और फिर शासकों का भी। हालांकि अगर केवल आर्यों और द्रविड़ों के बीच के फर्क को समझना हो तो उत्तर और दक्षिण में जो फर्क है उसी से समझ आ जाता है। उत्तर में आज भी स्त्रियॉं की स्थिति दक्षिण से निम्न ही है। दक्षिण में न केवल स्त्रियाँ परंतु पूरी जनसंख्या का रुझान शिक्षा और तकनीक की तरफ देखा जा सकता है। आज भी दक्षिण की स्त्रियाँ ज़्यादा शिक्षित और समर्थ हैं। जबकि उत्तर में इस शिक्षा और समर्थता का स्तर काफी नीचे है।

मैं हिन्दू हूँ, और मैं इस बात पर गर्व करती हूँ। किसी और भी धर्म के अंतर्गत पैदा हुई होती तो भी करती। क्यूंकी मैं अपने धर्म से केवल वो और वहाँ तक
 सीखने और समझने का प्रयास करती हूँ जहां तक मुझे किसी को चोट पहुंचाना, अपमान करना, नहीं सिखाया जाता। मेरे लिए मेरा ईश्वर मेरे मन में एक शक्ति के समान स्थित है जो मुझे विवेक देता है। उसे मुझे किसी रूप, आकार, रंग और मूर्ति में ढालने की ज़रूरत नहीं पड़ती।

धर्म हमें संयमित रखने के लिए है डराने और दबाव बनाने के लिए नहीं। जिस प्रकार किसी का वर्ण न हो उसे वर्ण शंकर कहते हैं, और अगर मेरा धर्म मुझे कुछ अनुचित करने को कभी बाध्य करेगा या कोई मुझे धर्म के नाम पर अनुचित कहने या करने को बाध्य करेगा तो मैं बिना किसी धर्म के धर्म शंकर कहलना पसंद करूंगी। 

Monday, June 11, 2018

चलें थोड़ा धर्म के इतिहास में


नोट: यह लेख पूर्णतः मेरी खोज, ज्ञान और सोच का एक मेल जोल है। किसी भी ऐतिहासिक और भौगोलिक घटना का सत्य/असत्य होने का मैं दावा नहीं करती हूँ। मैंने यह लेख कुछ किताबों, इंटेरेनेट, टेलिविजन और कुछ अनुभवी बुज़ुर्गों से मिली हुई जानकारी के आधार पर लिखा है। इस लेख का हिन्दू धर्म में आस्था रखने वालों को आहत करने को कोई अभिप्राय नहीं हैं।

भाग-1

करोड़ो वर्षों पूर्व संसार के नक्शे में भारत था ही नहीं। धीरे-धीरे हुए भौगोलिक परिवर्तनों के चलते संसार के नक्शे में परिवर्तन होता रहा है। भारत के नक्शे में से अगर हिमालय को अलग कर दिया जाए तो उसके बाद बचा हुआ निचला हिस्सा था इंडिया प्लेट जो कि 100 मिलयन वर्ष पहले प्राचीन महाद्वीप गोंडवाना से अलग हो कर उत्तर की ओर बढ़ी। ये प्लेट पहले हिन्द महासागर में तिरछी और काफी नीचे हुआ करता थी। धीरे-धीरे ये प्लेट खिसकते हुए और अपना कोण बदलते हुए सीधी हुई और यूरेशियन (यूरोप और एशिया) प्लेट से आकर टकराई। जिसके बाद हिमालय का निर्माण हुआ और आज का उत्तराखंड, नेपाल, जम्मू कश्मीर आदि बनने से भारत का नक्शा पूरा हुआ।

आज जिसे हम भारत के नाम से जानते हैं ये भारत होने से पहले द्रविड़ राज्य हुआ करता था। यहाँ द्रविड़ों का शासन था। द्रविड़ राज्य में मात्रसत्ता हुआ करती थी। यहाँ शासन रानी का होता था, और वो विवाह कर के एक राजा को इसलिए लाती थी क्यूंकी वो उससे संतान प्राप्ति कर सके। राजा का इससे अधिक और कोई कार्य नहीं होता था। हाँ, यदि वो बलशाली होता तो उसे सेना का नेत्रत्व करने का अवसर अवश्य मिलता था। रानी एक से अधिक विवाह भी कर सकती थी। उस विवाह का एक मात्र उद्देश्य होता था एक समर्थ पुत्री की प्राप्ति जो आगे जा के शासन संभाल सके। रानी तब तक संतान उत्पन्न करती थी जब तक वो एक समर्थ पुत्री को प्राप्त न कर ले। पुत्री की समर्थता उस समय उस राज्य के भविष्यवक्ताओं के द्वारा की गयी भविष्यवाणियों से तय की जाती थी। ध्यान देने योग्य है कि उस समय की भविष्यवक्ता भी स्त्रीयां ही होती थी। हर आवश्यक मोर्चे पर पर स्त्री का वर्चस्व था। यहाँ तक कि राज्य की सेना भी स्त्री से परिपूर्ण हुआ करती थी। बलशाली युवकों को सेना में भर्ती होने के लिए कड़े मापदण्डों पर खरा उतरना होता था। स्त्रियॉं को उनके बचपन से ही योद्धा बनने की तैयारी में लगा दिया जाता था।

उस समय यहाँ कोई धर्म नहीं था, कोई जातिवाद, वर्ण व्यव्यस्था, रंगभेद, उंच-नीच इत्यादि कुछ नहीं था। द्रविड़ देवी के उपासक थे। देवी का क्या स्वरूप था इसके बारे में कुछ निश्चित नहीं कहा गया आज तक। हाँ पर आचार्य चतुरसेन शास्त्री के लेखन में भारत में मात्रसत्ता होने के प्रमाणों के बारे में उन्होने स्पष्ट किया है। अब प्रश्न ये उठता है कि जब स्त्रियाँ इतनी सशक्त थी तो अचानक क्या और कैसे परिवर्तन आए जो हमारे देश के नक्शे में भारत का आकार और नाम बदलते हुए अपनी मात्रसत्ता को खो कर पित्रसत्ता को ग्रहण किया।

इतिहासकारों ने इस परिवर्तन का कारण बताया है द्रविड़ों पर आर्यों का आक्रमण और भारत पे उनका वर्चस्व। इंडो-यूरोपियन रेस जिसे आर्यन रेस या आर्य भी कहा जाता है, असल में सिंधु घाटी सभ्यता के विनाशक माने जाते हैं। द्रविड़ अपने राज्य या देश को सुरक्षित मानते थे क्यूंकी उनके अनुसार सप्त सिंधु (seven territories of Sindh river) क्रमशः शुतुद्री, परूष्णि, अशिक्नी, वितस्ता, विपाशा, अरिजिक्य या सुशोमा, और कुभा‘, उनके क्षेत्र की रक्षा कर रही थी और उन्हें पार कर के द्रविड़ राज्य में घुसना सरल कार्य नहीं था। सप्त सिंधु ऋग वेद का एक अभिन्न अंग हैं। आर्य भी अपना वर्चस्व फैलाने की लिए इंडोनेशिया से भारत की ओर बढ़े और अफगानिस्तान, हिंदुकुश पर्वत श्रंखला पार करते हुए तक्षिला (आज का पाकिस्तान) तक पहुंचे। जहां उस समय सिंधु घाटी सभ्यता परिवेश था। आर्यों ने ना केवल सिंधु घाटी सभ्यता का विनाश किया बल्कि सिंधु नदी की टेरीटरीज़ को भी नष्ट किया और अंततः द्रविड़ राज्य के तट तक आ पहुंचे।

द्रविड़ों की सेना स्त्रियॉं से भरपूर थी और उनकी शासक भी स्त्री थी, ये आर्यों के लिए अनोखी और असहनीय बात थी। पर स्त्री शक्ति तब भी आर्यों पर भारी पड़ रही थी। आर्यों के महा गुरु तंत्र विद्या में भी पारंगत उआ करते थे। जब आर्यों के बड़े-बड़े सूरमा भी द्रविड़ स्त्रियों के आगे पानी भर गए तो महा गुरु ने अपना छल खेला। मंत्रों के साथ तंत्र का प्रयोग करते हुए उन्होने द्रविड़ राज्य को पराजित किया और उत्तर छोड़ कर उन्हें नर्मदा पार दक्षिण में अपना राज्य स्थापित करने का प्रस्ताव रखा। उस समय से द्रविड़ नर्मदा नदी के पार दक्षिण में स्थापित हो गए। यही वो क्षण था जब मात्रसत्ता का अंत हुआ और पित्रसत्ता का उदय।


शेष अगले अंक में......