मिथक=मिथ्या
भारतीय
साहित्यकारों में एक नाम देवदत्त पटनाइक ऐसा नाम है जिसे अपने लेखन और कार्यों के
लिए भारत ने ज़रा देर में जाना और पहचाना। पर कहते हैं ना कि गुणी व्यक्ति की परख
में ज़रा देर लगती ही है। देवदत्त पटनाइक एक भारतीय लेखक, पौराणिक कथाकार (mythologist), नेत्रत्व सलाहकार और
संचारक हैं। ये मुख्यतः पुराणों और धर्म के द्वारा उत्पन्न किए गए मिथकों को तोड़ने
का प्रयास करते हैं। इनके पास पुराणों के प्रत्येक प्रसंग के लिए तर्क और कारण
होता है। मैंने इनके बारे में कुछ वर्ष पहले तब जाना जब टीवी के एपिक (Epic) चेनल पर इनकी एक सीरीज़ को देखा “देवलोक विद देवदत्त पटनाइक”। यूं तो इनहोने
अनेकों किताबें लिखी हैं, और ये उन लेखकों में से हैं जो कभी
रुकते नहीं। अमूमन एक लेखक अपनी एक किताब को लॉंच करने आता है, पर देवदत्त के ज्ञान का सागर इतना गहरा है कि जब वो अपनी एक किताब लॉंच
करते हैं तो दूसरी प्रिंटिंग में होती है, तीसरी उनके कलम के
नीचे और चौथी उनके दिमाग में। उनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ हैं:
‘जया’, ‘माय गीता’, ‘मिथ=मिथ्या’, ‘7 सीक्रेट्स ऑफ शिवा’, ‘सीता-एन
इलस्ट्रेटिड रामायना’, ‘दि बुक ऑफ राम’, ‘7 सीक्रेट्स ऑफ विष्णु’, ’90
थौट्स ऑन गणेशा’, ‘पशु’, ‘देवलोक’...........इत्यादि।
अनगिनत हैं सभी अंकित करना सरल नहीं। ना ही सबके बारे में एक साथ बात की जा सकती
है। इसलिए आज मैंने उनकी एक रचना ‘Myth=Mithya’ (मिथक=मिथ्या) को अपना विषय बनाया है।
Myth=Mithya (मिथक=मिथ्या)- Decoding Hinduism:
अपनी
इस पुस्तक में, जैसा कि नाम ही कहता है, देवदत्त हिन्दुत्व के मिथकों को तोड़ने का प्रयास करते दिखते हैं। वो ना
सिर्फ हर घटना और प्रसंद के पीछे तर्क देते हैं बल्कि कारण भी बताते हैं। यहाँ तक
कि वो ये स्पष्ट भी करते हैं कि कैसे कोई पौराणिक रीति वर्तमान समय की कुरीति बनी।
हम उनकी पुस्तक को पूरा तो नहीं पर कुछ हद तक आगे निंलिखित बिन्दुओं के माध्यम से
समझ सकते हैं।
1.
जातिवाद और उंच-नीच के भेद को जाने में अगले 100 वर्ष और लगेंगे:
संसार
के हर भाग में सामाजिक संरचनाएं हैं, जिनमें
से सबसे आम है परिवार। उसके बाद है संप्रदाय। अब ये संप्रदाय या तो एक जनजाति हो
सकती है या एक धर्म का पालन करने वाले लोग या फिर एक गुरु को मानने वाले या फिर एक
ही पेशे से जुड़े लोगों का जत्था। भारत में ये पेशा ही था जो लोगों को जतियों में
बांटता था, और यहाँ हजारों जातियाँ थीं। कुछ आनुवंशिक
सूचनाओं से हमें ये ज्ञात होता है कि 2000 वर्ष पहले जतियों के बीच अंतर्मिलन की
बहुत अधिकता थी। पर तभी कभी ‘एंडोगामी’
(endogamy) यानी ‘सगोत्र विवाह’ या ‘रोटी-बेटी परंपरा’ ने
अपना स्थान बना लिया। जिसका अर्थ था कि किसी एक जाती विशेष का कोई व्यक्ति अपना भोजन
और अपनी बेटी किसी दूसरी जाती के व्यक्ति से नहीं बांटेगा। जिसका परिणाम ये हुआ कि
जाति स्वयं ही एक आनुवंशिक जोड़ बन गयी और रक्त संबंध और एक ही पेशे की परंपरा को
बढ़ावा मिला। समस्या शुरू हुई कुछ 1000 वर्ष पूर्व, जब इन्हीं
जतियों ने अपनेआप को शुद्धता और अशुद्धता के मापदण्डों पर आंकना शुरू कर दिया। अब
अगर परंपरा अनुसार देखें तो ये उंच-नीच संसार के हर कोने में मिलेगी पर आर्थिक और
राजनीतिक आधार पर। परंतु भारत में इसे जन्म और रक्त शुद्धता से जोड़ा गया और शायद यही
हिन्दुत्व का सबसे काला पहलू है।
2.
भगवान को कोई फर्क नहीं पड़ता हम क्या पहनते हैं:
हिन्दु
धर्म एक आदेशात्मक धर्म नहीं है और इसीलिए यहाँ कोई एक ईश्वर या आदेश देने वाला
नहीं है जो आप पर नियंत्रण रखे। ऐसा कोई एक सार्वभौमिक हिन्दू नियम नहीं है जो
लागू होता हो, क्यूंकी हिंदूइज़्म बहुत विशाल और
विविध है। ये पूरी तरह से जाति प्रथा के इर्द गिर्द बुना गया है इसलिए यहाँ
विभिन्न संप्रदाय हैं जो कि अलग-अलग वेषभूषा का अनुसरण करते हैं। उनका वेश पूरी
तरह से उस देश के उस स्थान और पर्यावरण पर निर्भर करता है जहां वो रहते हैं। तो
ऐसे विभिन्न फैशन पैदा हुए। भारत के प्राचीन काल में शरीर का ऊपरी भाग पूरी तरह से
खुला रखा जाता था, इसलिए स्त्रियाँ भी अपने स्तनों को ढकती
नहीं थीं। उस समय ये बिलकुल अभद्र या अश्लील नहीं समझा जाता था। वो तो बस कपड़े
पहनने का एक तरीका था। इसीलिए मंदिरों की दीवारों पर उकेरे गए देवी-देवताओं के
चित्रों में उनके ऊपरी भाग वस्त्रहीन होते है। फिर समय के बीतने के साथ ही शरीर के
ऊपरी भाग को ढकना शुरू हो गया। तो इस प्रकार एकवस्त्र,
द्विवस्त्र, त्रिवस्त्र, लज्जावस्त्र
जैसी अनेक चीज़ें उत्पन्न हुईं। आखिरकार साड़ी का उद्भव हुआ जो शरीर के सभी भागों को
ढकने के लिए वस्त्रों का एक मेल है। फिर घूँघट का आगमन हुआ जो कि भारत के दक्षिणी
भाग की तुलना में उत्तरी भाग में ज़्यादा प्रचलित है।
3.
शाकाहार को हिंदूइज़्म से जोड़ना गलत है:
विविधता
हिन्दुत्व का एक मौलिक सिद्धांत है और इसीलिए यहाँ भोजन में बहुत विविधता है। यहाँ
कोई एक निश्चित वस्तु नहीं है और हिंदूइज़्म एक बहुदेववादी विश्वास है, अनेक ईश्वर, अनेक प्रकार के भोजन की आदतें और
इसीलिए किसी एक आदर्श हिन्दू भोजन जैसा यहाँ कुछ नहीं है। यहाँ शाकाहारी, मांसाहारी, अंडा खाने वाले,
सभी तरह का मांस खाने वाले, सभी प्रकार के पौधे और फल खाने वाले
लोगों का सम्मिश्रण है। भारतीय भोजन के तरीके की खास बात ये हैं कि यहाँ सारा खाना
एक थाली में परोसा जाता है और आप जो भी खाना चाहते हैं उसे अपनी इक्षा के अनुसार
उतनी ही मात्र में मिला-जुला के खा सकते हैं और जो आप नहीं खाना चाहते उस कटोरी को
बस अपनी थाली से निकाल कर अलग कर सकते हैं। शाकाहार न तो पूरी तरह एक गुण है ना ही
अवगुण। भारत में बौद्ध धर्म, जैन धर्म,
तपस्वी और योगी परम्पराओं के आने के बाद ये चलन शुरू हुआ। जहां हर भौतिक या तामसिक
वस्तु को दूर रखा जाए और इन्हीं परम्पराओं के चलते शाकाहार का उद्भव हुआ। उन्होने
एक तरफ शाकाहार को अच्छी सेहत से जोड़ा और दूसरी तरफ जानवरों पे क्रूरता ना करने से
क्यूंकी बहुत सी रीतियों में जानवरों की बली देने की भी परंपरा थी। इसी प्रकार
शाकाहार को अहिंसा से जोड़ते हुए उच्च कुल या जातियों ने अपने धर्म और रक्त शुद्धता
के रूप में इसे स्वीकार कर लिया।
4.
हिन्दुत्व में विवाह की परंपरा का उद्भव:
महाभारत
कुंती और पांडु के बीच का एक रुचिकर संवाद है। जब हमें इतिहास के उस समय के
बारे में बताया जाता है जहां विवाह की कोई परंपरा नहीं थी। स्त्री-पुरुष एक दूसरे
के पास अपने सुख और इक्षा के आधार पर जाते थे। फिर एक दिन एक युवा साधू ‘श्वेतकेतु’ अपनी माँ को किसी अन्य पुरुष के आलिंगन
में देख लेते है और वो अपने पिता से इसकी शिकायत करते है। उसके पिता को इस बात से
कोई आपत्ति नहीं है, और वो कहते हैं कि स्त्री कहीं भी जाने
के लिए स्वतंत्र है जहां उसे सुख मिले। श्वेतकेतु को ये उत्तर उचित नहीं लगता और
वो पित्रसत्ता को स्थान देने के लिए विवाह के विचार को संस्थापित करते हैं। तो इस
तरह विवाह का चलन सफतौर पे इसलिए बनाया गया कि संतान को अपने पिता का ज्ञान हो।
इसके साथ ही ‘नियोग’ परंपरा की भी
चर्चा होती है जहां अगर पुरुष संतान उत्पत्ति में असफल हो तो वो अपनी पत्नी को
किसी अन्य पुरुष से संतान उत्पत्ति के लिए संबंध स्थापित करने की सहमति दे सकता
है। महाभारत में विवाह, नियोग, संपत्ति
और उत्तराधिकार सभी का एक घाल-मेल है। विवाह भी संपत्ति,
संतोनत्पत्ति, उत्तराधिकार और पित्रसत्ता का एक रूप है।
5.
हिन्दुत्व और मासिक धर्म से जुड़ी कुरीतियाँ:
पुरातन
काल में जब सैनिटरी नैप्किंस नहीं हुआ करते थे, और जब स्त्री
माह में एक बार रक्त स्त्राव से पीड़ित होती थी, उसका रक्त धरती
पर गिरता था। जब शुद्धता का पहलू चलन में आया तो उस स्त्राव को दूषित माना गया। उस
समय थूक, पसीना और मासिक रक्त स्त्राव को वैदिक परम्पराओं में
दूषित माना जाता था। पर तांत्रिक परम्पराओं में नहीं। तांत्रिक परम्पराओं में इसे ‘राजस’ (जिसकी पूजा की जाए) कहा जाता था। तांत्रिक कलाओं
को देखें तो उनमें स्त्री के जननांगों और मासिक रक्त स्त्राव को बड़ी महत्ता दी जाती
है क्यूंकी ये मानव जाती को मृत्यु, प्रेम और नए जीवन का भान
कराते हैं। पर वैदिक परम्पराओं में यज्ञ शाला के आस पास इसे अशुभ माना जाता था और इसलिए
स्त्रियॉं को दूर रखा जाता था। इसी तरह स्त्रियॉं को उनके मासिक धर्म में अकेला छोड़
देने की परंपरा शुरू हुई। ये सब तब था जब सैनीटरी नैप्किंस नहीं थे। आज विभिन्न उत्पाद
मौजूद हैं और विज्ञान ने मासिक धर्म और रक्त स्त्राव से संबन्धित सारे ही मिथकों को
तोड़ दिया है।
6. हिन्दुत्व और यौन संबंध (सेक्स):
यौन
संबंध या सेक्स हिंदूइज़्म का एक महत्वपूर्ण भाग है। हिंदूइज़्म के शुरुआती दौर में इस
बात पर गहन वाद-विवाद रहा कि अविवाहित रहना अधिक उचित है या यौन सम्बन्धों में पूरी
तरह से भाग लेना या क्या विवाह में बंध कर यौन सम्बन्धों में भाग लेना सर्वथा उचित
है। इस प्रकार यहाँ सेक्स से जुड़े हर प्रकार के विचार हैं, धर्म के लिए यौन संबंध (sex for dharma), मोक्ष के लिए (sex for moksha), अर्थ के लिए (sex for business), काम के लिए (sex for pleasure)। तंत्र के लिए यौन संबंध (tantra sex) जिसमें सेक्स एक तकनीक की तरह प्रयुक्त होता है
जिसके द्वारा साधक मुक्ति के मार्ग को साधता है या अपने और दूसरे शरीरों और उनकी क्रियाओं
को समझना चाहता है। कैसे शरीर मस्तिष्क पर नियंत्रण पा लेता है और कैसे इन तीव्र अनुभूतियों
को शरीर विकसित करता है। हिंदूइज़्म में सेक्स के प्रति एक विशाल समझ है, यहाँ सिर्फ संतानोपत्ति के लिए भी यौन संबंध हैं, इसलिए
धर्मशास्त्र केवल संतानोत्पत्ति के संबंध में ही यौन सम्बन्धों की बात करता है। भूगोल
और ऐतिहासिक कालों के साथ ही इस संबंध में विचार भी परिवर्तित होते रहते हैं।
7.
हिन्दू पुराणों में तीसरे लिंग को पहचान मिली:
हिंदूइज़्म
विविधता का प्रतीक है और यहाँ विभिन्न प्रकार के सम्बन्धों को पहचान भी मिली है। Heterosexual
(विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण), Homosexual (समान
लिंग के प्रति आकर्षण), Monogamy (एक पत्नी प्रथा),
Polygamy (बहु पत्नी प्रथा), Monandry (एक पति प्रथा), Polyandry (बहु पति प्रथा), और Serial Monogamy, जो भी प्रकृति में मौजूद है। एक
तरफ हंसों का जोड़ा है पूरा जीवन एक ही साथी के साथ व्यतीत करते हैं तो दूसरी तरफ वानर
हैं जो झुंड में साथियों का चुनाव करते हैं। प्रकृति में सब कुछ मौजूद है। पौराणिक
कथाओं में हम देखते हैं कि स्त्री पुरुष में और पुरुष स्त्री में परिवर्तित हो जाता
है, इस प्रकार तीसरे लिंग को बौद्ध धर्म, जैन धर्म, हिन्दू धर्म में एक संभावना की तरह पहचान
मिली है। बौद्ध धर्म में ‘पंडक’ (pandaka), संस्कृत में क्लिबा (klibba), नपुंसक (napunsaka) और पेदी (pedi) शब्द का प्रयोग होता आया है। भारत के
पास इस तीसरे लिंग के लिए अनेकानेक नाम और पहचान है। जो इस तथ्य का प्रमाण है कि इस
बात को पूरी परिपक्वता के साथ समझा और गृहण किया जाए की प्रकृति में तीसरा लिंग या
homosexuality मौजूद है।
अच्छी जानकारी लिखी,मैं भी एपिक चैनल पर "देवलोक विथ देव्दुत्त पटनायक " देखता हूँ I उनकी तर्कसंगत वातें अच्छी लगती हैं I
ReplyDeleteयह लेख अत्यंत उपयोगी तथा सूचनाओं से परिपूर्ण है । जिन लोगों को देवदत्त जी की पुस्तक को पढ़ने का अवसर न मिला हो, उनके लिए यह लेख पुस्तक का सारसंक्षेप गागर में सागर के रूप में उपस्थित है । बहुत-बहुत आभार एवं अभिनंदन आपका ।
ReplyDeleteप्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ
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